वैदिक ज्ञान प्रदत मोक्ष मार्ग:-
लक्ष्य निर्धारण - बृह० उप 06.2.8-16
मार्ग का स्वरूप:-
- विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।। यजुर्वेद - ४०.११
श्रुति के इस मंत्र का लक्ष्यार्थ यह है कि ब्रह्म विद्या जानने की इच्छा वाले साधक को पहले अविद्या के ज्ञान से विकारी जगत से तादात्म्य समाप्त कर विद्या (उपासना) से सर्वव्यापक चिन्मय सत्ता के साथ एकाकार हो अपने अमरत्व (नित्य स्वभाव) की पहचान कर लेना चाहिये।
विद्या और अविद्या का यथा स्थान महत्व होने पर भी यह स्मरण रखना कर्त्तव्य है कि वे माया के ही अन्तर्गत हैं। सन्त तुलसी के अनुसार -
- तेहिकर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। विद्या अपर अविद्या दोऊ ।। मानस. ३.१५.४
- श्रीमद्भागवत में भी ऐसा ही दिया गया है। यथा -
"शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्मविद्या और बन्धन का अनुभव कराने वाली अविद्या ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी माया से ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है" भागवत् ११.११.३
विद्या और अविद्या की यथा योग्य जानकारी का लाभ उठा लेने के बाद ब्रह्म विद्या प्रकट हो जाती है और जीव परमार्थिक सत्य में स्थित होकर परमानन्द युक्त जीवन व्यतीत करने लगता है