(1) अविद्या माया(मानस 3.15. 4) से छुटकारा:- ईश्वर अंश जीव, सत्ता-चित्ता- आनंद की स्वाभाविक मांगों का उन स्थानों में,जहां वे नहीं है,ढूंढने में लगा है।सत्ता के लिए हर क्षण परिवर्तन होने वाली प्रकृति को स्थाई बनाए रखना चाहता है।चित्ता के लिए अनंत माया की जानकारी जुटाना में लगा है। आनंद के लिए विषयानंद द्वारा अनंत वासनाओं को तृप्त करना चाहता है।आवरण के तादात्म्य रहते प्रयास असफल रहते हैं और जीव मृत्युभय, अज्ञानता और अतृप्ती के कारण,त्रितापों से पीड़ित रहता है।अन्वय- व्यतिरेक(भागवत 2.9.35 )द्वारा आवरण भंग होने पर ही,तापों से छुटकारा होता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो उठता है ।