Friday, March 8, 2024

पूर्णता का विज्ञान

(1) अविद्या माया(मानस 3.15. 4) से छुटकारा:- ईश्वर अंश जीव, सत्ता-चित्ता- आनंद की स्वाभाविक मांगों का उन स्थानों में,जहां वे नहीं है,ढूंढने में लगा है।सत्ता के लिए हर क्षण परिवर्तन होने वाली प्रकृति को स्थाई बनाए रखना चाहता है।चित्ता के लिए अनंत माया की जानकारी जुटाना में लगा है। आनंद के लिए विषयानंद द्वारा अनंत वासनाओं को तृप्त करना चाहता है।आवरण के तादात्म्य रहते प्रयास असफल रहते हैं और जीव मृत्युभय, अज्ञानता और अतृप्ती के कारण,त्रितापों से पीड़ित रहता है।अन्वय- व्यतिरेक(भागवत 2.9.35 )द्वारा आवरण भंग होने पर ही,तापों से छुटकारा होता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो उठता है ।


(2) विद्या माया (मानस 3.15. 4) का बोध:- जीव-जगत-जगदीश्वर की परस्पर प्रतिबद्धता का विज्ञान ही अन्वय-व्यतिरेक( भागवत 2.9. 35 )का विज्ञान है।
परंब्रह्म🔁ईश्वर🔁आत्मा🔁जीव🔁प्राणी 🔁जंगम🔁मनुष्य🔁स्त्री ,पुरुष🔁ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र;सब परस्परअन्वय-व्यतिरेक श्रृंखला से प्रतिबद्ध है और सब में शुद्ध चितिशक्ति अथवा चिदाभास का प्रवाह हो रहा है।सृष्टि सहित परमब्रह्म का बोध करानेवाला मानव शरीर ही मोक्ष का द्वार है।



(3) परमार्थिक सत्य- ब्रह्मविद्या :-संसार-चक्र के भ्रमण से निकल जाना मोक्ष है।भूत-शुद्धि और चित्त-शुद्धि कर लेने पर चित्त- प्रतिबिंबित जीव अपनी बिम्ब रूपी आत्मा को देखकर मोक्ष प्रक्रिया में प्रवेश कर जाता है।। गीता 6.20।। इसके आगे विकास क्रम में जीव-आत्मा-परमात्मा की परस्पर प्रतिबद्ध श्रृंखला (गीता6.29,30) का भी बोध कर लेने से मोक्ष प्रक्रिया पूरी होती है और जीव "पूर्णता" में युक्त हो जाता है। विस्तृत जानकारी के लिए गूगल में मेरे ब्लॉग "वैदिक विज्ञान (vedic science) और संसार चक्र से मुक्ति" तथा "spiritual reality अपना और हिंदुत्व का परिचय" में देखें ।







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