वैदिक विज्ञान (Vedic Science) द्वारा संसार चक्र से मुक्ति
इस ब्लॉग में संसार चक्र से मुक्त होकर परमात्मा में स्थित होने की विधि का वर्णनन है।
Friday, March 8, 2024
Monday, October 30, 2023
वैदिक विज्ञान की झांकी
दृश्य प्रपंच भगवान से पृथक नहीं है।यह भगवान का रूप है,उनका विलास है,उनका उल्लास है,उनकी लीला है। प्रस्तुत है,वैदिक (सनातन,हिंदू)विज्ञान की वहिरंग-अंतरंग झांकी।:-
Friday, August 18, 2023
1) भूमिका
वैदिक ज्ञान प्रदत मोक्ष मार्ग:-
लक्ष्य निर्धारण - बृह० उप 06.2.8-16
मार्ग का स्वरूप:-
- विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।। यजुर्वेद - ४०.११
श्रुति के इस मंत्र का लक्ष्यार्थ यह है कि ब्रह्म विद्या जानने की इच्छा वाले साधक को पहले अविद्या के ज्ञान से विकारी जगत से तादात्म्य समाप्त कर विद्या (उपासना) से सर्वव्यापक चिन्मय सत्ता के साथ एकाकार हो अपने अमरत्व (नित्य स्वभाव) की पहचान कर लेना चाहिये।
विद्या और अविद्या का यथा स्थान महत्व होने पर भी यह स्मरण रखना कर्त्तव्य है कि वे माया के ही अन्तर्गत हैं। सन्त तुलसी के अनुसार -
- तेहिकर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। विद्या अपर अविद्या दोऊ ।। मानस. ३.१५.४
- श्रीमद्भागवत में भी ऐसा ही दिया गया है। यथा -
"शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्मविद्या और बन्धन का अनुभव कराने वाली अविद्या ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी माया से ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है" भागवत् ११.११.३
विद्या और अविद्या की यथा योग्य जानकारी का लाभ उठा लेने के बाद ब्रह्म विद्या प्रकट हो जाती है और जीव परमार्थिक सत्य में स्थित होकर परमानन्द युक्त जीवन व्यतीत करने लगता है
2) संतमत
संत की दृष्टि में वैदिक जीवन:-
संत की दृष्टि में वैदिक जीवन:-कर्म से चित्त शुद्ध होता है । उपासना से चित्त समाहित होता है। इस प्रकार मल और विक्षेप का निवारण कर्म और उपासना का फल है। शुद्ध और समाहित चित्त में ज्ञानी तत्त्वदर्शी सद्गुरु का तत्त्वोपदेश प्रतिष्ठित होता है। तत्त्वोपदेश से तत्त्वबोध होता है । तत्त्ववोध से अनिर्वचनीय अज्ञानसहित अज्ञानकृत आवरणका विध्वंस होता है। अज्ञानावरणके विध्वंसके लिए सृष्टिसंरचनाके सनातन प्रकार का ज्ञान आवश्यक है।
- पुरी शंकराचार्य
3) कर्मकांड
वैदिक जीवन यात्रा का व्यवहारिक प्रथम चरण- कर्मकांड:
कर्मयोग की साधना के सोपान - https://durgashankerpandey.blogspot.com/2019/03/blog-post_33.html
भक्तियोग-पथ में, मानस 3.16 के श्री रामगीता-प्रकरण के अनुसार - https://durgashankerpandey.blogspot.com/2020/05/316.html
ज्ञानयोग-पथ के क्रमिक विकास पर तीन दृष्टिकोण - https://durgashankerpandey.blogspot.com/2020/05/blog-post.html
5) ज्ञान कांड
वैदिक जीवन यात्रा का व्यवहारिक तृतीय चरण- ज्ञान कांड
वेद सम्मत ज्ञान-सार:- ब्रह्म सच्चिदानंद है।"सत्" है अविनाशी,"चित्" है स्वयं प्रकाश और "आनंद" है उसका स्वरूप।ब्रह्म का अंश होने के नाते,सत्ता, चित्ता और आनंद जीव की स्वाभाविक मांग है। मानव इन तीनों को उन स्थानों पर ढूंढ रहा है,जहां वे है नहीं।"सत्ता" बनाए रखने के लिए देह सहित परिवर्तनशील प्रकृति को यथावत बनाए रखना चाहता है।"चित्ता" (ज्ञान) के लिए अनिर्वचनीय माया की जानकारी जुटाकर,अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने का असफल प्रयास करता है।"आनंद" के लिए इंद्रियों से तादात्म्य कर विषय आनंद द्वारा अनंत वासनाओं को तृप्त करने के असंभव प्रयास में लगा है।अस्तु जीव जब तक देह रूपी आवरण को अपना स्वरूप मानता है,तब तक उसे "मृत्यु" भय छूता है "अज्ञान" रहता है और "दुख" रहता है।
आवरण भंग होने पर यह सब समस्याएं समाप्त हो जाती हैं।भागवत 2.9.35 में बताई गई अन्वय -व्यतिरेक की युक्ति से आवरण भंग हो जाता है।
अनादि प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न नादयुक्त( कॉस्मिक एनर्जी) ही शक्तिरूप से समष्टि और व्यष्टि में व्याप्त है,जिससे सृष्टि के सब क्रियाकलाप चल रहे हैं।उन सबको वैसे ही चलते रहना है,केवल स्वयं देह से तादात्म्य छोड़कर,ब्रह्म से युक्त होकर,सत्ता-चिता-आनंद की पिपासा मिटा लेनी है।यही जीवन की सफलता है :-